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अंतिम ऊँचाई- कुँवर नारायण की कविता

कुँवर
alka
1 minute 21 seconds
4 years ago
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अंतिम ऊँचाई- कुँवर नारायण की कविता

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अंतिम ऊँचाई- कुँवर नारायण की कविता
Amtim Unchai Poem
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कितना स्पष्ट होता आगे बढ़ते जाने का मतलब
अगर दसों दिशाएँ हमारे सामने होतीं,
हमारे चारों ओर नहीं।
कितना आसान होता चलते चले जाना
यदि केवल हम चलते होते
बाक़ी सबरुका होता।
मैंने अक्सर इस ऊलजलूल दुनिया को
दस सिरों से सोचने और बीस हाथोंसे पाने की कोशिश में
अपने लिए बेहद मुश्किल बना लिया है।
शुरू-शुरूमें सब यही चाहते हैं
कि सब कुछ शुरूसे शुरू हो,
लेकिन अंत तक पहुँचते-पहुँचते हिम्मत हार जाते हैं।
हमें कोई दिलचस्पी नहीं रहती
कि वहसब कैसे समाप्त होता है
जो इतनी धूमधामसे शुरू हुआ था
हमारे चाहने पर।
दुर्गम वनों और ऊँचे पर्वतों को जीतते हुए
जब तुम अंतिम ऊँचाई को भी जीत लोगे—
जब तुम्हें लगेगा किकोई अंतर नहीं बचा अब
तुममें और उन पत्थरों की कठोरता में
जिन्हें तुमने जीता है—
जब तुम अपने मस्तक पर बर्फ़ का पहला तूफ़ान झेलोगे
और काँपोगे नहीं—
तब तुम पाओगे कि कोई फ़र्क़ नहीं
सब कुछ जीत लेने में
और अंततक हिम्मत न हारने में।