
क्या हम सब कुछ जानते हैं । कुँवर नारायण
क्या हम सब कुछ जानते हैं
एक-दूसरे के बारे में
क्या कुछ भी छिपा नहीं होता हमारे बीच
कुछ घृणित या मूल्यवान
जिन्हें शब्द व्यक्त नहीं कर पाते
जो एक अकथ वेदना में जीता और मरता है
जो शब्दित होता बहुत बाद
जब हम नहीं होते
एक-दूसरे के सामने
और एक की अनुपस्थिति विकल उठती है
दूसरे के लिए।
जिसे जिया उसे सोचता हूँ
जिसे सोचा उसे दोहराता हूँ
इस तरह अस्तित्व में आता पुनः
जो विस्मृति में चला गया था
जिसकी अवधि अधिक से अधिक
सौ साल है।
एक शिला-खंड पर
दो तिथियाँ
बीच की यशगाथाएँ
हमारी सामूहिक स्मृतियों में
संचित हैं।
कभी-कभी मिल जाती हैं
इस संचय में
व्यक्ति की आकांक्षाएँ
और विवशताएँ
तब जी उठता है
दो तिथियों के बीच का वृत्तांत।